दिव्यांगों का भी हो समुचित विकास ,विश्व विकलांग दिवस (03 दिसंबर) पर विशेष
समाज में दिव्यांगता को एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। जिसे सुधारने की आवश्यकता है। इसीलिए हर साल 3 दिसंबर को विश्व विकलांग दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में हर वर्ष 3 दिसम्बर को अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने घोषणा की गयी। इसका उद्देश्य समाज के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में दिव्यांग लोगों के बारे में जागरूकता बढ़ाना था। मगर आज भी लोगों को तो इस बात का भी पता नहीं होता है कि हमारे आसपास कितने दिव्यांग रहते हैं। उन्हें समाज में बराबरी का अधिकार मिल रहा है कि नहीं।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में दिव्यांग आज भी अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित हैं। दुनिया में 8 प्रतिशत लोग दिव्यांगता का शिकार हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 2.21 प्रतिशत आबादी यानी 2.68 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की दिव्यांगता से ग्रस्त हैं। दिव्यांग जनसंख्या में 56 प्रतिशत (1.5 करोड़) पुरुष हैं और 44 प्रतिशत (1.18 करोड़) महिलाएं हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है। शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाये तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सोच सही रखी जाये तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं। दिव्यांगों का मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना एक भूल और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 दिसंबर 2015 को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में कहा था कि शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के पास एक ‘दिव्य क्षमता’ है और उनके लिए ‘विकलांग’ शब्द की जगह दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उन्होंने लोगों से विकलांगों को दिव्यांग कहने की अपील की थी। जिसके पीछे तर्क था कि शरीर के किसी अंग से लाचार व्यक्ति में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। विकलांग शब्द उन्हें हतोत्साहित करता है। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर देश के लोगों ने विकलांगों को दिव्यांग तो कहना शुरू कर दिया लेकिन लोगों का उनके प्रति नजरिया आज भी नहीं बदला है। आज भी दिव्यांगों को दयनीय दृष्टि से देखा जाता है। भले ही देश में अनेकों दिव्यांगों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया हो मगर लोगों का उनके प्रति वहीं पुराना नजरिया बरकरार है।
विकलांगों के अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठन नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर द राइटस ऑफ डिसएबिल्ड ने प्रधानमंत्री मोदी के दिव्यांग शब्द पर उनको पत्र लिखकर कहा कि था कि केवल शब्द बदलने मात्र से विकलांगों के साथ होने वाले व्यवहार के तौर-तरीके में कोई बदलाव नहीं आएगा। सबसे बड़ी जरूरत विकलांगों से जुड़े अपयश, भेदभाव और हाशिए पर डालने के मुद्दों पर ध्यान देने की है।
दुनिया में बहुत से ऐसे दिव्यांग हुए हैं जिन्होंने अपने साहस, संकल्प और उत्साह से विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम लिखवाया है। तैमूरलंग हाथ और पैर से शक्तिहीन था। मेवाड़ के राणा सांगा बचपन में ही एक आंख गंवाने तथा युद्ध में एक हाथ व एक पैर तथा 80 घावों के बावजूद कई युद्धों में विजेता रहे थे। सिख राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख बचपन से ही खराब थी। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सुधाचंद्रन का दायां पैर नहीं था। फिल्मी गीतकार कृष्ण चंद्र डे तथा संगीतकार रविंद्र जैन देख नहीं सकते थे। पूर्व क्रिकेटर अंजन भट्टाचार्य मूक-बधिर थे। वर्ल्ड पैरा चैम्पियनशिप खेलों में झुंझुनू जिले के दिव्यांग खिलाड़ी संदीप कुमार व जयपुर के सुन्दर गुर्जर ने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया है।
भारत में आज भी दिव्यांगता प्रमाण पत्र हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है। सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों तक चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावे कहते हैं कि इस प्रक्रिया को काफी सरल बनाया गया है, लेकिन हकीकत इससे काफी दूर नजर आती है। दिव्यांगता का प्रमाणपत्र जारी करने के सरकार ने जो मापदण्ड बनाये हैं। अधिकांश सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक उनके अनुसार दिव्यांगों को दिव्यांग होने का प्रमाणपत्र जारी नहीं करते। जिसके चलते दिव्यांग व्यक्ति सरकारी सुविधायें पाने से वंचित रह जाते हैं।
सरकार द्वारा देश में दिव्यांगों के लिए कई नीतियां बनायी गयी हैं। उन्हें सरकारी नौकरियों, अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है। दिव्यांगों के लिए सरकार ने पेंशन की योजना चला रखी है। लेकिन ये सभी सरकारी योजनाएं उन दिव्यांगों के लिए महज मजाक बनकर रह गयी हैं। जब इनके पास इन सुविधाओं को हासिल करने के लिए दिव्यांगता का प्रमाणपत्र ही नहीं है।
देश में दिव्यांगो को दी जाने वाली सुविधाएं कागजों तक सिमटी हुई हैं। अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां दिव्यांगों को एक चौथाई सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही है। केन्द्र सरकार ने देशभर के दिव्यांग युवाओं को केन्द्र सरकार में सीधी भर्ती वाली सेवाओं के मामले में दृष्टि बाधित, बधिर और चलने-फिरने में दिव्यांगता या सेरेब्रल पल्सी के शिकार लोगों को उम्र में 10 साल की छूट देकर एक सकारात्मक कदम उठाया है। दिव्यांगता शारीरिक अथवा मानसिक हो सकती है किन्तु सबसे बड़ी दिव्यांगता हमारे समाज की उस सोच में है जो दिव्यांग जनों से हीनभाव रखती है। जिसके कारण एक असक्षम व्यक्ति असहज महसूस करता है।
अब दिव्यांग लोगों के प्रति अपनी सोच को बदलने का समय आ गया है। दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे। इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान की जरूरत है। हाल के वर्षों में दिव्यांगों के प्रति सरकार की कोशिशों में तेजी आयी है। दिव्यांगों को कुछ न्यूनतम सुविधाएं देने के लिए प्रयास हो रहे हैं। हालांकि योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सरकार पर सवाल उठते रहे हैं। पिछले दिनों क्रियान्वयन की सुस्त चाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार भी लगायी थी। दिव्यांगो को शिक्षा से जोडना बहुत जरूरी है। मूक-बधिरों के लिए विशेष स्कूलों का अभाव है। जिसकी वजह से अधिकांश विकलांग ठीक से पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते हैं।